सुधि नहि आवत.
कैसे है निर्मोही सजन हमारे
प्रीत लगाई के बैठे है किनारे,
असाढ़ मास जब मयूरा बोले
सुनकर मोरा तन - मन डोले,
सावन में जब बदरा छाये
देख के मोरा जिया डर जाये,
भादों मास जब बिजुरी चमके
जान अकेली आ डर धमके,
कुवांर- कातिक आवन कहि गयो
अगहन लागि सुध तबहु नहि लियो,
कैसे बन गए निर्मोही बलम मेरे
पूष गयो माघी ने मुह फेरे,
फागुन के दिन बाढन लाग्यो
चैत में चिंता रात भर जाग्यो,
वैशाखी म भी नहि आयो माही
जेठ तपन अब सहि जावत नाही,
बारह मास बीत सखी जावत
तबहूँ बलम को सुधि नहि आवत,
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
बहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ......
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना |
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंसच्ची में ये विरह गीत है
जवाब देंहटाएंउम्दा अभिव्यक्ति
सादर
सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
मर्मस्पर्शी गीत ....उम्दा अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंवाह वाह वाह धीरेन्द्र जी बहुत ही बढ़िया |
जवाब देंहटाएंवाह। बारह महीनों की प्रेमी के इंतजार की टीस उत्पन्न्ा करती, मौसम के संग जोड़ता सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत ही सारगर्भित सुन्दर प्रस्तुति,धन्यबाद आपका।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन.
जवाब देंहटाएंजय जय जय घरवाली
वाह|| क्या कहने ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन है यह विरह गीत
:-)
rang-birange bhawon ke sath ....badhiya prastuti ..
जवाब देंहटाएंआभार !!! दिलबाग जी
जवाब देंहटाएंआभार !!! राजीव जी ,,,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विरह गीत !!
जवाब देंहटाएंबिछोड़े को उद्दीप्त करती रचना -
जवाब देंहटाएंआवन कह गए अजहूँ न आये ,
बीती सारी उमरिया
बिछोड़े को उद्दीप्त करती रचना -
जवाब देंहटाएंआवन कह गए अजहूँ न आये ,
बीती जाए रे सारी उमरिया ,
न लीन्हीं रे मोरी खबरिया।
waah sir ji
जवाब देंहटाएंJaysi ji yad aagye .
firak-e-gam kkise sunayen ab
ashko ne bhi vfa n nibhayee .
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबारह मास बीत सखी जावत nice
जवाब देंहटाएंअहा, हर माह की व्यथा..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बारहमासा..
जवाब देंहटाएंसुन्दर विरह गीत ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बारह मासी विरह गीत
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट साधू या शैतान
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आपकी रचना को पढकर मुझे कालिदास की किताब "ऋतुसंहार " की याद आ गई । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसादर
अनु
बहुत खूब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर.....
जवाब देंहटाएंअनूठा गीत . . .
जवाब देंहटाएंबधाई !
सावन की विरह अभी जारी है. सुंदर.
जवाब देंहटाएंwaah. .. har maah ki apni apni virah vedna
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारा गीत, बधाई.
जवाब देंहटाएंबारह मास बीत सखि जावत, तबहु प्रीतम को सुधि नही आवत।
जवाब देंहटाएंआह ये बिरहा की अगन।
सुन्दर ,सुमधुर गीत
जवाब देंहटाएंवाह बहोत खूब...!!!
जवाब देंहटाएंबारहमासी विरह वेदना का सुंदर चित्रण..............
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आदरणीय-
पूस फूस सा दिन उड़ा, किन्तु रात तड़पाय |
दिवस बिताऊं ऊंघ कर, जाड़ा जियरा खाय |
जाड़ा जियरा खाय, रजाई नहिं गरमाए |
भर भर के उच्छ्वास, देह में अगन जलाए |
फिर भी रविकर चैन, रैन का गया *रूस सा |
दूरभाष के बैन, उड़ें ज्यों पूस फूस सा ||
*गुस्सा
आभार !!! रविकर जी,,,,
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति धीरेंद्रजी..
जवाब देंहटाएं.......... वाह धीरेन्द्र जी बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंनिर्मोही कहाँ सुध लेता है , बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंbahut sundar ..
जवाब देंहटाएंविरह की आग तो हर मौसम में सताती है ...
जवाब देंहटाएंभावमय प्रस्तुति है ...
अहा !! लोकगीत याद दिला दिए आपने
जवाब देंहटाएंसुमधुर गीत ....धन्यवाद तो बनता है आपके लिये