बेटी
जब होता है जन्म किसी के , आँगन में बेटी का,
सदा लाडली होती है वह, प्यारी माँ की गोदी का!
समय गुजरता ज्यों-ज्यों , लता सी है वह बढती,
माँ बाप का पाकर प्यार ,फूलों सी है वह खिलती!
हँस-हँसकर तुतली बोली में, वह खुश सबको रखती है,
फिर भी न जाने पिता के मन, चिंता सी क्यों रहती है !
उसको बढते देख पिता का , दिल दुःखों से भर जाता.
लाऊं कहाँ से दहेज सोचकर,पिताका मन है घबराता!
सारी दुनिया कहती है आज, कि भेद नही बेटा- बेटी में,
यही सोच कर लुटा दिया ,पिता ने जो धन था गठरी में!
पढ़ा - लिखा कर योग्य बनाया , बेटी को बेटा जैसा,
विदुषी बनकर हुई सुगन्धित,फूलों की खुशबू जैसा!
किस देव पर इसे चढाकर, मै मन की शांती पाऊं,
द्वार-द्वार पर घूम घूम कर,थक गया मै कहाँ जाऊं!
अपना सा मुँह लेकर वो,घर को लौट आता है
पुत्री को देखकर ,मन ही मन आँसू बहाता है
कन्या का वर कैसा हो , यही वो सोचता रहता है,
आती है आवाज उधर से,दहेज भी देना पडता है!
किसके आगे हाथ पसारे , किसको सुनाये ये दुखड़ा,
बिना दहेज के मीत न मिले, बेटी है दिल का टुकड़ा!
हाय विधाता ये तूने कैसा, खेल अजीब दिखाया,
दहेज में बिक रही बेटियाँ , और ये मानव काया!
आज दहेज का रोग भयंकर , घर-घर कैसे दौड रहा,
कितने पिता बेटी की खातिर, मरने मजबूर होरहा!
आज हम मजबूर बाप है, बेटी की चिंता क्यों न होगी,
कल तुम जब बाप बनोगे, तुम्हारे घर जब बेटी होगी!
dheerendra,"dheer"
सदा लाडली होती है वह, प्यारी माँ की गोदी का!
समय गुजरता ज्यों-ज्यों , लता सी है वह बढती,
माँ बाप का पाकर प्यार ,फूलों सी है वह खिलती!
हँस-हँसकर तुतली बोली में, वह खुश सबको रखती है,
फिर भी न जाने पिता के मन, चिंता सी क्यों रहती है !
उसको बढते देख पिता का , दिल दुःखों से भर जाता.
लाऊं कहाँ से दहेज सोचकर,पिताका मन है घबराता!
सारी दुनिया कहती है आज, कि भेद नही बेटा- बेटी में,
यही सोच कर लुटा दिया ,पिता ने जो धन था गठरी में!
पढ़ा - लिखा कर योग्य बनाया , बेटी को बेटा जैसा,
विदुषी बनकर हुई सुगन्धित,फूलों की खुशबू जैसा!
किस देव पर इसे चढाकर, मै मन की शांती पाऊं,
द्वार-द्वार पर घूम घूम कर,थक गया मै कहाँ जाऊं!
अपना सा मुँह लेकर वो,घर को लौट आता है
पुत्री को देखकर ,मन ही मन आँसू बहाता है
कन्या का वर कैसा हो , यही वो सोचता रहता है,
आती है आवाज उधर से,दहेज भी देना पडता है!
किसके आगे हाथ पसारे , किसको सुनाये ये दुखड़ा,
बिना दहेज के मीत न मिले, बेटी है दिल का टुकड़ा!
हाय विधाता ये तूने कैसा, खेल अजीब दिखाया,
दहेज में बिक रही बेटियाँ , और ये मानव काया!
आज दहेज का रोग भयंकर , घर-घर कैसे दौड रहा,
कितने पिता बेटी की खातिर, मरने मजबूर होरहा!
आज हम मजबूर बाप है, बेटी की चिंता क्यों न होगी,
कल तुम जब बाप बनोगे, तुम्हारे घर जब बेटी होगी!
dheerendra,"dheer"
सबका हृदय टटोलती कविता..
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति यह उत्कृष्ट है , रची 'धीर' गंभीर ।
जवाब देंहटाएंफटें बिवाईं आपनी, तब जाने पर-पीर ।।
सच पूछिए तो कई समस्याओं की जड़ में दहेज ही है.....
जवाब देंहटाएंसुन्दर गम्भीर रचना...बहुत बहुत बधाई...
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं...पर अब समय बदल रहा है,
जवाब देंहटाएंबेटियों से घर संभल रहा है !
बहुत गंभार मुद्दे पर लिखी कविता चित्र सा बनाती हुई आँखों के सामने दहेज़ प्रथा ही है भ्रूण हत्या और सभी फसादों की जड़ न जाने लोगों में पूर्ण जाग्रति कब आएगी बहुत अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना ... आभार आपका |
जवाब देंहटाएंआज फीड आ गयी है आभार गूगल का भी !
मन भर आया धीरेन्द्र जी!!
जवाब देंहटाएंसिद्धांत और व्यवहार का फर्क यही है। जो भुगतता है,वही जानता है।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंअब स्थितियां बदल रही हैं …
बेटी-बेटे के अनुपात के कारण कई जगह हालात उलटे भी हो रहे हैं …
कविता भाव पूर्ण लिखी है आपने … आभार !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
पिता की चिन्ता स्वभाविक है...बहुत अच्छा लिखा है|
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुती ....
जवाब देंहटाएंपढ़ा लिखाकर योग्य बनाया, बेटी को बेटा जैसा,
जवाब देंहटाएंविदुषी बनकर हुई सुगन्धित,फूलों की खुशबू जैसा!
किस देव पर इसे चढाकर, मै मन की शांती पाऊं,
द्वार-द्वार पर घूमघूम कर थक गया मै कहाँ जाऊं!..... यही स्थिति बेटी नहीं चाहने का कारण बन जाती है ! अभी कल ही सुना है एक ऑफिसर लड़की के लिए कि गोरी कम है .... बेटा हद से ज्यादा मोटा , पर आज भी यही कथन कि लड़का तो घी का लड्डू ! .... इस परेशानी को बहुत सही ढंग से आपने व्यक्त किया है
आओ मिलकर यह प्रण करें ...की दहेज़ के दानव का दम तोड़ देंगे ......अब न लेंगे ने देंगे दहेज़ हम ...... बेटियों को एक सम्मान्य जीवन देंगे ......
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
आज दहेज का रोग भयंकर, घर-घर कैसे दौड रहा है,
जवाब देंहटाएंकितने पिता बेटी की खातिर, मरने मजबूर होरहा है!..... सही कहा धीरेन्द्र जी ....मन को झकझोरती सटीक रचना....आभार..
सच कहा संतोष त्रिवेदी जी ने..
जवाब देंहटाएं...पर अब समय बदल रहा है,
बेटियों से घर संभल रहा है !
मगर अब भी पूरी तरह बदला नहीं है...सो बेटियों के पिता की फ़िक्र तो जायज़ है.....
सादर.
भावपूर्ण अभिव्यक्ति ........
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन .... बेटी को पढ़ा लिखा कर भी दहेज से बेहाल माँ बाप की व्यथा को बखूबी उभारा है ...
जवाब देंहटाएंपढ़ा लिखाकर योग्य बनाया, बेटी को बेटा जैसा,
जवाब देंहटाएंविदुषी बनकर हुई सुगन्धित,फूलों की खुशबू जैसा!
किस देव पर इसे चढाकर, मै मन की शांती पाऊं,
द्वार-द्वार पर घूमघूम कर थक गया मै कहाँ जाऊं!…………दहेज के दानव से कैसे मुक्ति पाऊँ मैं ………एक पिता का दर्द बखूबी बयान कर दिया और आज के समाज की सोच को भी………शानदार प्रस्तुति
बहुत ही सत्य को प्रस्तुत करती कविता लिखी है आपने। इसके लिए आपको बधाई हो। दहेज प्रथा का बिल्कुल सही वर्णन किया है। इस अच्छी और सच्ची कविता की रचना के लिए आपको धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंक्या कहने
अक्षरश: सही कहा है इस प्रस्तुति में आपने ... आभार
जवाब देंहटाएंकल 16/05/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
...'' मातृ भाषा हमें सबसे प्यारी होती है '' ...
जरुरी नहीं की सभी दहेज़ लोभी होते है फिर भी बेटी का पिता होने के नाते सभी माता -पिता सोंचते है लेकिन ये हमेशा याद रखना चाहिए की बेटियां हमारा स्वाभिमान होती है.........
जवाब देंहटाएंकुछ मीठी कुछ कड़वी बातों कों संजो के लिखी अच्छी रचना है बहुत ही ...
जवाब देंहटाएंकुछ कहते है
जवाब देंहटाएंबेटी गाय होती है
सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका पुन: स्वागत है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंaapne bahut hi salike se beti ko jivan ko sahaj dhang se kah diya ! sadar naman
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन ...
जवाब देंहटाएंसार्थक ..बहुत भावपूर्ण सुंदर , रचना ...!!
भावपूर्ण उत्तम रचना...
जवाब देंहटाएंसादर
सारी दुनिया कहती है आज, कि भेद नही बेटा- बेटी में,
जवाब देंहटाएंयही सोच कर लुटा दिया ,पिता ने जो धन था गठरी में
आज हम मजबूर बाप है, बेटी की चिंता क्यों न होगी,
कल तुम जब बाप बनोगे, तुम्हारे घर जब बेटी होगी
समाज की सच्चाई ,कडवी - अभिशाप - कोढ़ न जाने कब दूर होगी.... ??
एक सच का सामना है यह कविता- दुनिया के रंग अनेक हैं ...
जवाब देंहटाएंखाने दांत अलग,दिखाने के दांत अलग -दहेज जैसी कुरीति के खिलाफ सभी बोलते हैं
कुछ हि अमल करते हैं,
एक बेटी का बाप हि समझ सकता है,इस दर्द को
सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद एवं बधाई
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 17 -05-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....ज़िंदगी मासूम ही सही .
Deep thoughts.
जवाब देंहटाएंDeep thoughts.
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मस्पर्शी .....सभी के घर बेटियां भी है और बेटे भी पर जब बात बेटी की आती है तो सभी दहेज़ विरोधी राग गाने लग जाते हैं और बेटी की शादी के वक्त हम सब कहते हैं क्यूँ क्या हमने बेटी को दहेज़ नहीं दिया क्या ?अब तो लेने की बारी है फिर तो दहेज़ लेना है .....
जवाब देंहटाएंजानकार आश्चर्य और दुःख होगा कि धनवान और संपन्न परिवारों में ही यह प्रथा ज्यादा है..
जवाब देंहटाएंलील गया है यह दकियानुसी ख्याल हमारे समाज को..
कविता में सार्थक चिंतन .
जवाब देंहटाएंदहेज़ अभी तक एक अभिशाप बना हुआ है .
beti to sabhim ke dil ka tukda hoti hai. par jab bat bahu ki hoti hai to dusre ki beti tuchh najar ati hai or jab apni beti ki bat ati hai to wah dil ka tukda ho jati hai. jab tak ye fark khatm n hoga har bap aise hi aansu bahata rahega....... jeevant rachna hai
हटाएंभाई धीरेन्द्र जी बहुत ही भावपूर्ण कविता |आभार
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति ........सार्थक चिंतन आभार ...
जवाब देंहटाएंbhavpurn nd sacchi abhwaykti....
जवाब देंहटाएंसत्य का वर्णन करती सुन्दर रचना | आपकी रचना ने हृदय स्पर्श कर लिया | आभार
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना गहन भाव लिए है |
जवाब देंहटाएंआशा
दोहरे मानदंडों के कारण समाज में बहुत विषम स्थितियाँ हैं जो दुख का कारण हैं .
जवाब देंहटाएंbehtreen prastuti.. bahut kuch likha ja chuka hai! lekin halaat jyun ke tyun hi hain....!
जवाब देंहटाएंlekin apna kaam to sandesh dena hi hai1 shaandar sirjan ! badhai kabule..
sis ummeed ke sath ki halaat sudhre!
सामाजिक सरोकारों को संबोधित पोस्ट .कटु यथार्थ का दर्पण दरका हुआ सा .जिसमे कोई प्रतिबिम्ब साफ़ नहीं उभरता .
जवाब देंहटाएंram ram bhai
शुक्रवार, 18 मई 2012
ऊंचा वही है जो गहराई लिए है
http://veerubhai1947.blogspot.in/
Posted by veerubhai to दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक at 17 May 2012 12:51
बहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंक्यों शर्मिंदा से लगते हो
जवाब देंहटाएंबेटी करके दिखायेगी !
विदुषी पुत्री जिस घर जाए
चिंता दूर भगाएगी !
इसके पीछे चलते चलते, जग सीखेगा मेरे गीत !
कर्मठ बेटी के होने पर , क्यों शर्मिन्दा तेरे गीत !
प्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएंआपके लेखन की तारीफ के लिए शब्द ही नहीं मिलते |बहुत भाव पूर्ण रचना |
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधीर जी ,आपकी पोस्ट हिट हो गई ,ब्लॉग बुलेटिन वाले या तो पोस्ट हटाते?या फिर आप की ही पोस्ट लोक प्रिय पोस्ट में सबसे ऊपर रही आती ,व पढी जाती इसी लिए लोक प्रिय पोस्ट का लेबल ही हटा दिया ,इससे आप और भी हिट हो गए,और इनके अथित सत्कार की पोल भी खुल गयी .
सार्थक, प्रभावशाली लेखन....
जवाब देंहटाएंकिस देव पर इसे चढाकर, मै मन की शांती पाऊं,
जवाब देंहटाएंद्वार-द्वार पर घूम घूम कर,थक गया मै कहाँ जाऊं!
सार्थक, प्रभावशाली रचना
bahut sateek likha hai.
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar kavita
जवाब देंहटाएंThanks
http://drivingwithpen.blogspot.in/
बेटी से घर स्वर्ग बन जाता है।
जवाब देंहटाएंसामाजिक पारिवारिक चिंताओं और चिंतन से आज के यथार्थ से जुडी पोस्ट .
जवाब देंहटाएंsundar rachna
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और प्रभावशाली प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंधीरेंदर जी, एक बेटी की माँ होने के नाते आपकी की भावनाओं ने ह्रदय को छू लिया....
जवाब देंहटाएंbahut sunder prastuti hai. udwelit karti ki aaj ham kasam khaye dahej na lene aur dene ki.
जवाब देंहटाएंबेटी की महत्ता को प्रतिपादित करती आपकी कविता बेहद भावनात्मक है.
जवाब देंहटाएंआपकी की भावनाओं और प्रभावशाली प्रस्तुति ने ह्रदय को छू लिया
जवाब देंहटाएंbahut bahut hi umda, satya deekhati raah seekhati prastuti.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर व प्रभावी ........
जवाब देंहटाएं