गुरुवार, 17 नवंबर 2011

हम दो हमारे दो .....



हम दो हमारे दो .....


अतीत के वे क्षण
कितने उल्लास पूर्ण,मधुर थे
सीमित परिवार में
हम दो हमारे दो थे
लेकिन-?
वर्त्तमान
बढ़ता परिवार
देश के लिए भार
अशांति और मानसिक यातना
भविष्य के लिए
जीवन की कठिन साधना
काम का अकाल
महगाई की मार
सपनों के ताने
जैसे कह रहे हो
हो गए न हमसे बेगाने
पर मै जान गया हूँ
सपने व हकीकत का फर्क
कभी कभी सोचता हूँ
काश लौट आते
अतीत के वे क्षण
जब सिर्फ
हम दो हमारे दो थे...

०००००००००००००००

यह मेरे जीवन की पहली रचना -1977-में लिखी थी,उस समय स्व० -संजय गांधी जी ने
परिवार नियोजन की शुरुआत की थी,और नारा दिया था - हम दो हमारे दो -कार्यक्रम से
प्रभावित होकर मैंने लिखा था ,साथ ही उसी समय मैंने राजनीति में प्रवेश किया ,शायद
आपको अच्छी लगे ,......dheerendra...

22 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है सर!

    सादर

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  2. सामजिक चेतना जगाने वाली अच्छी प्रस्तुति

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  3. काश लौट आते वो पल,सच में गरीबी को बढ़िया तरह से लिखा है आपने ।
    सार्थक पोस्ट !

    अपने महत्त्वपूर्ण विचारों से अवगत कराएँ ।

    औचित्यहीन होती मीडिया और दिशाहीन होती पत्रकारिता

    जवाब देंहटाएं
  4. समाज को सही सन्देश देती है ये रचना आपकी ...

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  5. काश...............गर ऐसा होता तो शायद हमारा देश किसी और ही मुकाम पर होता.बहुत सार्थक रचना...

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  6. सामजिक परिवेश पर सटीक प्रस्तुति!

    जवाब देंहटाएं
  7. देश के लिए भार
    अशांति और मानसिक यातना
    भविष्य के लिए
    जीवन की कठिन साधना
    काम का अकाल
    महगाई की मार
    सपनों के ताने
    जैसे कह रहे हो
    हो गए न हमसे बेगाने

    सामाजिक चेतना का यथार्थ चित्रण

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  8. अपने समय के
    महत्त्व को रेखांकित करती हुई
    सशक्त रचना ......
    बधाई .
    "दानिश"

    जवाब देंहटाएं
  9. बेहद खुबसूरत लिखा है.सामजिक चेतना युक्त .

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  10. बहुत सुन्दर सीख देती हुयी रचना आप की ..

    भ्रमर ५

    काम का अकाल
    महगाई की मार
    सपनों के ताने
    जैसे कह रहे हो
    हो गए न हमसे बेगाने

    जवाब देंहटाएं
  11. कभी कभी सोचता हूँ
    काश लौट आते
    अतीत के वे क्षण
    जब सिर्फ
    हम दो हमारे दो थे...
    Bilkul sahee kah rahe hain aap!

    जवाब देंहटाएं
  12. सच्चाई को आपने बहुत सुन्दरता से शब्दों में पिरोया है! अच्छी रचना!

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  13. 'हम दो हमारे दो' के बाद इंदिरा
    गाँधी ने १९७५ में यह नारा भी दिया था
    'एक हो पर शेर हो' और यह भी

    एक ही जादू
    कड़ी मेहनत,
    पक्का इरादा..

    आपने पुरानी यादें ताजा कर दी हैं,धीरेन्द्र जी.

    मेरे ब्लॉग पर आकर आपने मुझे नई पोस्ट
    लिखने का जो स्नेहिल आग्रह किया,उसके
    लिए बहुत बहुत आभारी हूँ मैं.व्यस्तता के कारण नही लिख पा रहा था.कोशिश है इस सप्ताह
    में लिख पाऊं.

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  14. राजनीति गुंडागर्दी का पर्याय हो गयी है कभी कभी लगता कि लूटमार करने के लिए लुटेरों ने वेश धारण किया है ...लकदक मुस्कान भरे चेहरे ...खादी..गरीब के घर में जा कर चाय पीना ...बासी भाषणों को याद करके बोलना....बस यही है देश और जनता कि सेवा....

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आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए अनमोल है...अगर आप टिप्पणी देगे,तो निश्चित रूप से आपके पोस्ट पर आकर जबाब दूगाँ,,,,आभार,