सोमवार, 6 जनवरी 2014

आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें

आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें
 
आ कुछ दूर चलें,फिर सोचें
अमराई  की  घनी  छाँव में
 नदी  किनारे  बधीं  नाव में,
  बैठ निशा के इस दो पल में,बीते लम्हों की हम सोचें !
आ  कुछ दूर  चलें,फिर  सोचें
मन आंगन  उपवन जैसा था
 प्रणय स्वप्न से भरा हुआ था,
तरुणाई के उन गीतों से,आ अपने तन मन को सीचें !
आ कुछ  दूर चलें, फिर सोचें
स्वप्नों की मादक मदिरा ले
 मलय  पवन से शीतलता ले,
फिर अतीत में आज मिला के,जीवन मरण प्रश्न क्यूँ सोचें !
आ कुछ  दूर चलें, फिर सोचें,
 
रचनाकार - विक्रमसिंह (केशवाही) शहडोल,म.प्र.

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब :)
    चलना ही पड़ेगा लगता है कुछ दूर !

    जवाब देंहटाएं
  2. मात्र चिन्तन ही न हो, कर्म हेतु पग बढ़े,
    मात्र श्रम भी न हो, कुछ सुस्पष्ट चिन्तन भी हो।
    सुन्दर पंक्तियाँ

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर व् सार्थक अभिव्यक्ति .नव वर्ष २०१४ की हार्दिक शुभकामनायें .

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आपका-

    जवाब देंहटाएं
  5. अमराई की घनी छाँव में/ अति सुन्दर....साधू साधू

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही सुन्दर रचना...साझा करने का शुक्रिया सर!!

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  7. बढ़िया रचना...
    आपको नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं!

    जवाब देंहटाएं
  8. मधुर गीत की तरह गुनगुनाने को मन करता है ...

    जवाब देंहटाएं
  9. जिंदगी का सफ़र बस चलते रहना चाहिए और साथ ही आत्ममंथन भी
    सादर !

    जवाब देंहटाएं
  10. .....सुन्दर रचना...साझा करने का शुक्रिया !!

    जवाब देंहटाएं
  11. वाह वाह ! बहुत ही सुन्दर रचना..आभार

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत सुंदर रचना .......साझा करने के लिए धन्यवाद.....

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए अनमोल है...अगर आप टिप्पणी देगे,तो निश्चित रूप से आपके पोस्ट पर आकर जबाब दूगाँ,,,,आभार,