
यह स्वर्ण पंछी था कभी....
यह स्वर्ण पंक्षी था कभी,
मृतप्राय घोषित कर दिया,
भूमि सात्विक थी कभी
मद्पेय क्लेशित कर दिया!
आक्षेप किस पर क्या रखू
अवयव निरूपित हूँ स्वयं,
यह स्वर्ण पंक्षी है वही
जो जी रहा रहमो करम!
तू मार्ग दर्शक था कभी
अब्बल में पाई सभ्यता,
तर्कस में तेरे बाण है,
पर कोई न एकलव्य सा!
कलंक की गठरी मेरी,
काँधो पर तेरे रख दिया,
यह स्वर्ण पंक्षी था कभी
मृतप्राय घोषित कर दिया!
शागिर्द तुझको कह रहे
प्रतिपल तुझे है कूटते.
सर्वत्र यह संघर्ष है
आक्षेप दूजों के लिये!
मृतप्राय इसको कर दिया,
अटका हुआ थोड़ा जिया,
आशा लगाए बैठी है,
अबला,जियेगा अब पीया!
अबला,जियेगा अब पीया!
बस नब्ज इसकी चल रही
कर्जो से दिल बैठा हुआ,
इस तख्त के संघर्ष में
कंगाल इसको कर दिया!
सर्दी हुई थी, जब इसे
इमली खिलाकर बल दिया,
यह स्वर्ण पंक्षी था कभी,
मृतप्राय घोषित कर दिया!
dheerendra,"dheer"