मंगलवार, 9 जुलाई 2013

नीयत बदल गई.



नीयत  बदल  गई 

क्या बर्फ  थी ज़रा  सी आँच में  पिघल गई
  मौक़ा  मिला तो आपकी  नीयत बदल  गई, 

हाँ  में  हाँ  मिलाने  में  क्यूं  सब  लगे  हुये 
 लगता है अक्ल घूमने  इनकी  निकल गई, 

जुल्म  देख  पूरी  पीढी  ने  ये   क्या  किया 
 ये कडवी दवा की तरह पल  में  निकल गई, 

बरसात  के लिए जो की  खुदा  की  इबादत
      बरसात  
आई   वो  भी  बाद  में  बदल  गई,     

इतना सरल  नही  धीर उस पतंग  को पाना
 जों डोर  तुम्हारे  हाथ से आकर  फिसल गई,
 
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया,"धीर"

58 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति -
    आभार आपका-

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  2. सुंदर सृजन , आभार ,
    यहाँ भी पधारे
    रिश्तों का खोखलापन
    http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html

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  3. सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...

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  4. बहुत बढ़िया अर्थपूर्ण ग़ज़ल....
    बरसात के लिए जो की खुदा की इबादत
    बरसात आई वो भी "बाद" में बदल गई, (टंकण त्रुटी है, बाढ़ कर लीजिये.)

    सादर
    अनु

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  5. 'बरसात के लिए जो की खुदा की इबादत....'

    बहुत खूब !

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  6. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    वाह वाह, लाजवाब गजल.

    रामराम.

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  7. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,
    ... सार्थक प्रस्तुति..

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  8. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति
    सादर

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  9. बेहतरीन प्रस्तुति ,अति सुन्दर

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  10. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति |
    आशा

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  11. बरसात के लिए जो की खुदा की इबादत
    बरसात आई वो भी बाद में बदल गई,
    वाह बहुत सुन्दर ...

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  12. बहुत सुन्दर भावमयी रचना...वाह बहुत सुन्दर ...

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  13. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11/07/2013 के चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें

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  14. सुंदर कृति ...... या कहे काव्य

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  15. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    बेहतरीन रचना (जो ,पीढी ,कड़वी )

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  16. क्या बात धीरेन्द्र जी, बहुत सुंदर
    मजा आ जाता है आपको पढ़ते हुए..


    कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री असली चेहरा : पढिए रोजनामचा
    http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/like.html#comment-form

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  17. बहुत खूबसूरत रचना, लाजवाब!

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  18. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    आपने सौ टके की बात कह दी

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  19. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,
    ..बहुत खूब...लुटेरों भतेरे जो हैं...

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  20. वाह ! बहुत भावभीनी पंक्तियाँ..आभार !

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  21. बह्हुत ही अच्छे शेरों से सजी गज़ल ..

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  22. सुंदर रचना...कुछ छंद तो काफी अच्छे हैं।।

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  23. हाँ में हाँ मिलाने में क्यूं सब लगे हुये
    लगता है अक्ल घूमने इनकी निकल गई,
    -खूब परखा है आपने!

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  24. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,
    ... सार्थक प्रस्तुति..



    यहाँ भी पधारे ,
    राज चौहान
    क्योंकि सपना है अभी भी
    http://rajkumarchuhan.blogspot.in

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  25. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति....

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  26. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,
    वाह..बहुत खूबसूरत गजल

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  27. बिम्ब और अर्थ भावोद्गार में अप्रतिम रचना .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .ॐ शान्ति .

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  28. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    सार्थक रचना

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  29. बहुत खूब .


    हाँ में हाँ मिलाने में क्यूं सब लगे हुये
    लगता है अक्ल घूमने इनकी निकल गई,

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  30. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    बहुत खूब, लाजवाब

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  31. सभी बढ़िया शेर ..... अंतिम खासकर बहुत ही अच्छा लगा .
    तीसरे चौथे शेर में 'निकल=निगल' 'बाद=बाढ़' टंकण की गलती हुई है कृपया उसे सही कर लें .
    सादर शुभ-कामनायें

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  32. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ में आकर फिसल गई ।

    बहुत खूब धीर जी । बहुत प्यारी गज़ल ।

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  33. वाह क्या बात है---------
    बेहतरीन गजल
    बहुत खूब
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  34. बहुत सुंदरअभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  35. इतना सरल नही धीर उस पतंग को पाना
    जों डोर तुम्हारे हाथ से आकर फिसल गई,

    वाह वाह !!! क्या बात है,बहुत ही सुंदर गजल...

    जवाब देंहटाएं

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